मंगलवार, 8 अगस्त 2017

तन, मन, धन और सुरत की सेवा


तन की  सेवा
जैसा की नाम से ही स्पष्ट है कि तन की सेवा क्या है। किसी स्थान पर शरीरक तोर पर उपस्थित हो कर सेवा करना तन की सेवा है। तन की सेवा में आने वाली सेवा है किसी वृद्ध की, माता-पिता की या अपने सतगुरु के चरण दबाना, स्नान करवाना, पंख झुलाना, पानी पिलाना, भोजन बना कर खिलाना आदि । तन की सेवा का मुख्य लाभ यह है कि हमारा मन निर्मलहो और अहंकार का नाश हो। जब हमारा तन मन निर्मल होगा तभी सतगुरु द्वारा हमे स्तय का भेद प्राप्त होगा, नाम मिलेगा और हमारी आत्मिक उनती होगी। हमे सेवा के लिए कभी ना नही करनी चाहिए। बल्कि सतगुरु का हुक्म मान कर सेवा में लग जाना चाहिए।
एक बार की बात है मेरे दीदी मुझे बता रहे थे कि वह सेवा के लिए गुरु घर गये। उनके साथ कुछ और भी बहने सेवा के लिए गई थी। वहां पहुंचने पर सभी बहनो को शौचालय साफ करने की सेवा मिली। किन्तु उनमे से एक बहन कहती के में तो यह सेवा नही कर सकती। मेने तो कभी घर मे भी शौचालय साफ नही किया। इस पर किसी भी बहन ने या सेवा दर ने उसे कुछ नही कहा। और वह औरत इतना कह कर फ्रेश होने के लिए शौचालय में में चली गई। शौचालय में जाते ही उस बहन का मोबाइल किसी तरह उसके पर्स में से निकल कर शौच में गिर गया। उस बहन ने बिना कुछ सोचें मोबाइल निकलने के लिए शौच में हाथ मार और मोबाइल निकल लिया। फिर उस बहन ने सोचा की मेने एक मोबाइल के लिये शौच में हाथ मार लिया पर सतगुरु के हुक्म मेने नही मन शौचालय साफ करने का। यह सोच कर उस बहन को बहुत दुख हुआ और वपिश जा कर सेवा को न करने के लिए माफी मांगी और शौचालय साफ करने की सेवा में लग गई। दोस्तो गुरु रामदास जी तो यहाँ तक कहते है कि अगर सतगुरु की सेवा करने के लिए हमे अपने शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े कर के भी अपने हाथ से अग्नि में जलने पड़े तो भी गुरु की सेवा के लिए तैयार रहना चाहिए।
पर में क्या करता हु पहली बात तो सेवा ही नही करता। अगर कहि सेवा के लिए चल भी जाऊ तो जब तक कुछ लोगो को बता कर अपनी मां बड़े न कर लूं तब तक मिझे लगता ही नही में सेवा कर के आया हु ।सेवा करनी क्यो थी की मन नीचा हो पर सेवा पर गए कि मेरी चार लोग वहा वही करे। जब इस तरह होता ह तो इतना अहंकार आ जाता है कि सीधे जमीन पर चलना भी मुश्किल हो जाता है। सेवा पर गए थे कि मन मे नम्रता आये पर अहंकारी हो कर आ गये। साथ मे सोचने लगते है कि मेरे जैसा तो सेवादार कोई और है ही नही। गये थे कर्म कटवाने कर्म लिखवा कर आते है सेवा से ।

धन की सेवा
धन की सेवा का अर्थ है कि अपनी हक हलाल की कमाई का एक हिसा अपने संत सतगुरु के सपुर्द करना अथवा किसी गरीब बेसहारा की धन रूप में सहायता करना धन की सेवा है। धन की सेवा से मन मे नम्रता आती है और मन मे भाव उतपन्न होता है कि यह जो कुछ भी है वह सब कुछ परमात्मा का है अगर मेरे पास कुछ भी है तो वह परमात्मा का है अगर मेरे से कुछ ले भी लिया तो वह भी परमात्मा का ही है। इसमे मुझे क्या कमी आयी।
किन्तु हम तो ऐसी हालत में है सारा जीवन धन कमाने में गवा दिया जब सेवा करने की बात आई तो सोचा कि यह जो भी धन दौलत है वह तो मेरी है। मेने सारा जीवन इसे एकत्र करने में लगा दिया में क्यो किसी को बिना बात के इसे दु। अगर कहि भूले से भी सेवा के लिए धन दिया तो बड़े बड़े अक्षरों में अपना नाम लिखवा दिया। सेवा तो करनी थी कि दिल मे नम्रता आये और भगवान के निवास के लिए मन को निर्मल करे। पर हमने सेवा की और अहंकार को मोल घर ले आये। सन्त तो कहते है कि सेवा करो तो किसी को पता न लगे के हमने सेवा की है । पर हमने सेवा की और अपने नाम का डंका पूरी दुनिया मे बजवा दिया कि मैने सेवा की है । ऐसी सेवा हमारी कभी सफल नही होती ।

मन की सेवा
कहते है कि कोई भी सेवा तभी सफल मानी जाती है जब वह मन करके की जाये, अर्थत अपने आप को गुरु चरणों की धूल समझ कर किया जाये। एक बार की बात है एक विदेशी औरत थी। वह औरत बहुत धर्म कर्म वाली थी। उस औरत ने भारत मे किन्ही संत से नाम शब्द लिया । उस औरत ने नाम की बहुत कमाई की और अपनी कमाई का कुश हिस्सा सेवा के लिए रखती रही और सोच जब भारत जयेगी तो सेवा अपने गुरु चरणों मे अर्पित कर देगी। परन्तु आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि वह भारत न आ पाई। समय बिता पर वह भारत न आ पाई। धीरे धीरे वह औरत वृद्ध हो गई पर मन मे अभी भी इच्छा थी कि में अपनी कमाई में से जो भी बचाया है वह सेवा में दे कर आये। सेवा के लिए मन मे इतनी गहरी तमना थी कि उसके गुरु को स्वयं उस सेवा को लेने के लिए औरत के पास जाना पड़ा। मन से की गई सेवा ही दरगाह में परवान होती है ।
मन कर के सेवा वही कर सकते है जिन पर मालिक बख्शीश करे दया करे। किन्तु इस बात से यह नही समझना कि मन से सेवा तो मालिक ही करवाता है मन के बिना की सेवा का कोई फल नही तो हमारा सेवा करने का क्या फायदा। नही हमे इस तरह नही सोचना बल्कि मालिक से प्रार्थना करनी है कि हे मालिक हमारे अंदर इतनी नम्रता ला के हम मन से तेरी और तेरी सृष्टि के जीवों की सेवा कर सके। इतना प्यार पैदा कर की तेरी बनाई दुनिया के जीवों के प्रति नफरत खत्म हो। मन मे से अहंकार का नाश हो और सत्य का प्रकाश हो।
प्रार्थना करना हमारा फ़र्ज है। 
बख्शीश करनी मालिक की दया।।

सुरत
 की सेवा
सुरत की सेवा सब प्रकार की सेवाओ में सबसे उत्तम सेवा है। यह सेवा गुरु कि कृपा द्वारा प्रप्त होती है। सुरत का शरीर के रोम-रोम से निकल कर गुरु चरणों के साथ लिव जोड़ कर अपने निज-धाम की तरफ जाना सुरत कि सेवा है। सुरत कि सेवा में जप, तप और सयम या धिरज शामिल है।सुरत की सेवा का सौभाग्य प्रभु इच्छा द्वारा प्राप्त होता हैं। हम अन्य अनेक प्रकार कि सेवा करते है किन्तु हम सुरत कि सेवा का भेद नही जनते। सुरत कि सेवा प्रप्त करने के लिए हमें सन्तों के पास जा कर सुरत कि सेवा के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। सुरत कि सेवा कि प्राप्ति के लिए सब से पहला और सरल सा कदम है सन्तों के पास जा कर तन द्वारा सन्तों कि आज्ञा अनुसार सेवा करना। जैसे जैसे सन्तों कि कृपा दृष्टि हम पर बनेगी। हमारी श्रद्धा और विश्वास बनेगा। मन से सेवा भी करने लगेंगे। जब मन की सेवा करते करते हमारा अंदर पवित्र होगा तो हमारा अपने असल अपने मूल की तरफ खिंचाव बढ़ता जायेगा और तब हम सन्तों के पास जाते है और सूरत की सेवा पाने के लिए सन्तों से प्रार्थना करते है और सेवा की प्राप्ति के लिए महनत करते है तब सन्तों की कृपा द्वारा हमे सुरत की सेवा प्राप्त होती है।
कहते है कि तन और धन की सेवा करने वाले बहुत है। मन की सेवा करने वाले बहुत कम है। किन्तु सुरत की सेवा करने वाले विरले ही है। सुरत की सेवा गुरु का शिष्य की एकमात्र सच्चा प्रसाद है। यह प्रसाद प्राप्त उन्हें ही होता है जिन पर गुरु की बक्शीश हो। अधिकतर लोग संसार की सेवा में ही लगे हुए है। संसार की सेवा अच्छी है पर अन्य सब प्रकार की सेवा का फल भोगने के लिए हमे बार-बार जन्म मरण के चक्र में आना पड़ता है। किंतु सुरत कि सेवा ही एक ऐसी सेवा है जिससे हमारा जन्म मरण के दुखों से निपटारा होता है। सुरत कि सेवा से मालिक की बनाई सृष्टि से मोह टूटता है। सुरत की सेवा का ज्ञान सन्तों की संगत और सत्संग से ही प्राप्त होता है। सुरत की सेवा से मन कि चंचलता खत्म होती है और मन अपने असल की और चल पड़ता है। सुरत की सेवा से सतगुरु(जो परमात्मा का ही रूप है) से प्रेम भाव और बढ़ता है और दुनिया मे से ख्याल सिमटने लगता है अर्थत दुनिया का मोह खत्म होता जाता है। सुरत की सेवा में लगे लोग जो भी सांसारिक कार्य करते है वह अपने गुरु का हुक्म समझ कर ही करते है। उनके लिए गुरु का हुक्म और मालिक का बहाना ही सब कुछ है।

सोमवार, 31 जुलाई 2017

सेवा क्या है?

सब से पहले हम यह समझने की कोशिश करते हैं कि सेवा किसे कहते हैं। अपने से बड़ो कि आज्ञा का पालन करना, वृद्ध व्यक्ति की सहायता करना, गरीबो और अनाथों की दया भाव से सहायता करना सब सेवा है। अगर हम रूहानियत में सेवा की बात करे तो अपने सतगुरु के हुक्म अनुसार कोई भी कार्य करना व भजन सिमरन करना सेवा है।
     अभी हमारे मन मे प्रश्न उठा कि हम सब 21वी सदी के जीव है। हम तो कोई भी कार्य करते है तो केवल अपने फायदे के लिए, तो हम सेवा क्यो करे? इसके जवाब में एक कहावत है " कर सेवा और खा मेवा"। अर्थात अर्थत सेवा से लोक-परलोक के सभी सुख मिलते है। विस्तार में कहे तो मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। सेवा का फल जो भी है परमात्मा एक दम नकद देता है। मतलब के सेवा का फल साथ कि साथ मिलता हैं। किंतु हमे सेवा का फल जरूरी नही हम जो चाहे वही मील। सेवा का फल परमात्मा वही देता है जो हमारे लिए अच्छा हो ।
       एक बार एक व्यक्ति अपने गुरु के पास गुरु के हुक्म अनुसार सेवा के लिए गया। उस व्यक्ति ने कई दिन तक मन लगा कर सेवा की। कुछ दिन बाद जब वह व्यक्ति अपने वापिस अपने घर जाने के लिए आज्ञा लेने जाने लगा। तभी उस व्यक्ति के कान में बहुत जोर का दर्द हुआ और वह वही पर बेहोश हो कर गिर गया। कुछ समय बाद उसे होश आया तो उसके कान का दर्द ठीक था। फिर वह व्यक्ति अपने गुरु के पास गया और गुरु जी को सारी घटना सुनाई ओर पूछा कि मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ। तो गुरु जी ने जवाब देते हुए कहा" तेरे कुछ कर्मो का हिसाब था "। तो व्यक्ति ने पूछा " कैसे कर्म?" गुरु जी ने बताया कि" तूने बचपन मे एक पथर उठा कर एक चिड़िया को मार था। वो पथर सीधा चिड़िया के सिर में जा कर लगा। नीचे गिरते हुए चिड़िया के मन से निकला के जिसने मुझे पथर मारा भगवान उसे भी दर्द दे। ये उसी क्रम का दर्द था।" तो उस व्यक्ति ने फिर सवाल किया कि "सतगुरु मतलब की मेरे सेवा का कोई फल नही मुझे जो इतना दर्द मिला।" इस पर गुरु जी मुस्कुराये और बोले" ये दर्द तुझे के दिन के लिए होना था जो तेरी सेवा के कारण कट गया और कुछ पलों के दर्द से ही तेरा कर्म कट गया।"
       देखा दोस्तो सेवा का फल इतना नकद है। सेवा का फल तभी पूर्ण है जब तक हम अपने पूरे मन से सेवा नही करते। सेवा हम इसलिए करते है कि हमारे अंदर से अहंकार का नाश हो और परमात्मा का प्यार प्राप्त हो। जो व्यक्ति निष्काम भाव से सेवा करते है एक दिन वह ऐसा पद प्राप्त करते है कि सारा संसार उनकी सेवा में हाजिर होता है।

सोमवार, 21 नवंबर 2016

मूल मंत्र

 ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

Add caption
आदि ग्रंथ की प्रथम बानी 'जपु' है। जीसे सत्कार से 'जपजी साहिब' भी कहते हैं। सब से पहले महावाक्य लिखा है, इसे मूलमंत्र कहा जाता है। मूलमंत्र की शुरुआत किसी भाषा के अक्षर या शब्द से नहीं, बल्कि अंक एक (१) से होती है, साथ में गुरमुखि लिपि के प्रथम अक्षर को लिखा गया है दोनों को मिलाकर एक ओअंकार पढ़ा जाता है। जिसका अर्थ यह है कि परमात्मा एक है, जिसने इस सारी सृष्टि की रचना की है। इसके बाद शब्द आता है 'सति नामु' जिसे सतनाम पढ़ाया जाता है। इसका शाब्दिक अर्थ है:- वजूद वाला। यहां गुरु साहिब समझाते हैं कि परमात्मा कोई सोची विचारी कल्पना मात्र नहीं है, उसका वजूद है। इसके बाद मन में सवाल पैदा होता है कि अगर परमात्मा का वजूद है तो वह करता क्या है? आगे गुरु जी हमारी शंकाओं का नाश करते हुए कहते हैं कि वह 'करता पुरखु' है अर्थात वह सृष्टि को रचने वाला और पालने वाला है। जो कुछ भी मनुष्य अपनी आंखों से देख सकता है, वह सब परमात्मा ने बनाया है। कर्ता का सिद्धांत रूहानियत के सबसे महत्वपूर्ण पहलुओ में से एक है। वह प्रभु हम सबका मालिक सब कुछ करने वाला और पालने वाला है। हम सबका वजूद पूरी तरह से परमात्मा पर निर्भर है। 'पुरखु'  'परुष' का बदला हुआ रूप है, 'पुरखु'  का अर्थ है शक्तिमान या विधाता परमात्मा सर्वशक्तिमान है और सर्व व्यापक है। आगे मन में प्रश्न उठता है कि अगर वह पुरुष है उसका वजूद है तो वह किसी से डरता भी होगा, किसी से वैर विरोध भी होगा, और उसका जन्म भी होता होगा? इन सब प्रश्नों का उत्तर देते हुए आगे गुरु जी कहते हैं कि नहीं वह किसी से डरता नहीं है ना ही उसका किसी से वैर विरोध है। डर तो उसका होता है अगर कोई हमसे शक्तिशाली हो किंतु परमात्मा से शक्तिशाली और है ही नहीं। वैर विरोध भी  उसका होता है अगर कोई हमारे बराबर हो किंतु परमात्मा के बराबर तो परमात्मा ही है, तो उसका किसी से बैर कैसा। आगे गुरु जी कहते हैं कि वह 'अकाल मूरति' है और 'अजूनी' है। अर्थात परमात्मा काल के दायरे में नहीं आता वह समय के दायरे से बाहर है परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि अगर वह काल के दायरे में नहीं आता तो उसका वजूद नहीं है इसलिए गुरुजी ने 'अकाल' के साथ 'मूरति' भी लिखा है। 'मूरति' का अर्थ है हस्ती या वजूद अर्थात यह कि परमात्मा काल के दायरे से बाहर की एक शक्तिशाली हस्ती है, जिसका वजूद भी है। आगे गुरु जी कहते हैं कि परमात्मा माता के गर्भ में नहीं आता। ना उसका जन्म होता है, ना ही वह कभी मरता है। जन्म तो सिर्फ परमात्मा के अवतारों का होता है। फिर प्रश्न उठता है कि परमात्मा कहां से आया अगर उसका जन्म ही नहीं हुआ? गुरु जी कहते हैं 'सैभं' अर्थात जिसका वजूद अपने आप से हो। आगे प्रश्न उठता है कि ऐसे गुणों वाले परमात्मा से मिलाप किस प्रकार किया जा सकता है ?तो गुरु जी लिखते हैं 'गुर प्रसादि' अर्थात गुरु की कृपा द्वारा हम परमात्मा से मिलाप कर सकते हैं। गुरु जो भी रास्ता बताता है, निसंकोच होकर गुरु पर भरोसा करके चलो उचित समय आने पर गुरु अपनी रहमत द्वारा हमें परमात्मा से मिलाप करवा देगा।

मंगलवार, 6 सितंबर 2016

तेरी याद विच बीते हर शाम ते सवेरा

मेनू है आस तेरी तू आसरा है मेरा
तेरी याद विच बीते हर शाम ते सवेरा
तू पातशाह में गोलि तेनु में किवे रिजावा
ऐ दो जहान दे मालिक सुन ले मेरी सदावा

हुन ना भुलावी दाता भुल्या सी में बथेरा
तेरी याद विच बीते हर शाम ते सवेरा

झोली च मेरे हिरा मुरशद ने सी जद पाया
खुशिया च नचया प्रीतम अते रूह ने गीत गया
गलिया च नूर तक के मिटदा गया हनेरा
 तेरी याद विच बीते हर शाम ते सवेरा

मेनू है आस तेरी तू आसरा है मेरा
तेरी याद विच बीते हर शाम ते सवेरा
तू पातशाह में गोलि तेनु में किवे रिजावा
ऐ दो जहान दे मालिक सुन ले मेरी सदावा

मेरे सतगुरु जी तुसी मैहर करो, में दर तेरे ते आई होइ आ

मेरे सतगुरु जी तुसी मैहर करो, में दर तेरे ते आई होइ आ
मेरे कर्मा वल न वेखयो जी, में कर्मा तो शरमाई होइ आ

जो दर तेरे ते आ जांदा, ओ असल खजाने पा जांदा
मेनू वी खाली मोड़ी ना, में वी दर ते आस लगाई होइ आ
मेरे सतगुरु जी तुसी मैहर करो, में दर तेरे ते आई होइ आ
मेरे कर्मा वल न वेखयो जी, में कर्मा तो शरमाई होइ आ

तुसी तारन हार कहोन्दे हो, डुब्या नु बने लोंदे हो
मेरा वी बेडा पार करो, में वी दुख्यारन आई होइ आ
मेरे सतगुरु जी तुसी मैहर करो, में दर तेरे ते आई होइ आ
मेरे कर्मा वल न वेखयो जी, में कर्मा तो शरमाई होइ आ

सब संगी साथी छोड़ गए, सब रिश्ते नाते तोड़ गए
तू वी किदरे ठुकराई ना, ऐ सोच के में कब्रराई होइ आ
मेरे सतगुरु जी तुसी मैहर करो, में दर तेरे ते आई होइ आ
मेरे कर्मा वल न वेखयो जी, में कर्मा तो शरमाई होइ आ

रूह गद-गद हो गई है दातिया दर्शन करके तेरे

रूह गद-गद हो गई है दातिया दर्शन करके तेरे
तेरे ज्ञान दे चानन ने किते दूर दिला दे हनेरे
रूह गद-गद हो गई है दातिया_ _ _ _ _

मन मोहनी सूरत है तेरी ऐ मेरे दिलदार
छो तेरे चरणा दि साईंया देवे स्वर्ग नजारा
मेरी बहा ना छोड़ी जी,  दात्या में लड़ लग गई तेरे
रूह गद-गद हो गई है दातिया_ _ _ _ _

 मेनू कमली रमली नु एने बिन वेखै अपनाया
ऐ जग तो सोहना ऐ नी ऑडियो में जो वर घर पाया
मेरी रूह रानी ने ले लाये हुन इंददे नाल फेरे
रूह गद-गद हो गई है दातिया_ _ _ _ _

मेरे ख्वाबो ख्याल च नही सी मेनू मिल जाऊ माहि सोहना
मेरे दिल दी तख्ती ते बैठा आन परोहणा
शहनाइयां वज उठिया नी जद ऐ आ वड़्या विच मेरे
 रूह गद-गद हो गई है दातिया_ _ _ _ _

कर मैहर उतारा ना ऐसी ज्ञान दी कर फुलकारी
तेरी सोच मुताबिक ही ढल जाये मेरी जिंदगी सारी
तेरी सेवा वस जाये हुन ता रोम-रोम विच मेरे
रूह गद-गद हो गई है दातिया_ _ _ _ _

तन, मन, धन और सुरत की सेवा

तन की  सेवा जैसा की नाम से ही स्पष्ट है कि तन की सेवा क्या है। किसी स्थान पर शरीरक तोर पर उपस्थित हो कर सेवा करना तन की सेवा है। तन ...