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तन की सेवा
जैसा की नाम से ही स्पष्ट है कि तन की सेवा क्या है। किसी स्थान पर शरीरक तोर पर उपस्थित हो कर सेवा करना तन की सेवा है। तन की सेवा में आने वाली सेवा है किसी वृद्ध की, माता-पिता की या अपने सतगुरु के चरण दबाना, स्नान करवाना, पंख झुलाना, पानी पिलाना, भोजन बना कर खिलाना आदि । तन की सेवा का मुख्य लाभ यह है कि हमारा मन निर्मलहो और अहंकार का नाश हो। जब हमारा तन मन निर्मल होगा तभी सतगुरु द्वारा हमे स्तय का भेद प्राप्त होगा, नाम मिलेगा और हमारी आत्मिक उनती होगी। हमे सेवा के लिए कभी ना नही करनी चाहिए। बल्कि सतगुरु का हुक्म मान कर सेवा में लग जाना चाहिए।
एक बार की बात है मेरे दीदी मुझे बता रहे थे कि वह सेवा के लिए गुरु घर गये। उनके साथ कुछ और भी बहने सेवा के लिए गई थी। वहां पहुंचने पर सभी बहनो को शौचालय साफ करने की सेवा मिली। किन्तु उनमे से एक बहन कहती के में तो यह सेवा नही कर सकती। मेने तो कभी घर मे भी शौचालय साफ नही किया। इस पर किसी भी बहन ने या सेवा दर ने उसे कुछ नही कहा। और वह औरत इतना कह कर फ्रेश होने के लिए शौचालय में में चली गई। शौचालय में जाते ही उस बहन का मोबाइल किसी तरह उसके पर्स में से निकल कर शौच में गिर गया। उस बहन ने बिना कुछ सोचें मोबाइल निकलने के लिए शौच में हाथ मार और मोबाइल निकल लिया। फिर उस बहन ने सोचा की मेने एक मोबाइल के लिये शौच में हाथ मार लिया पर सतगुरु के हुक्म मेने नही मन शौचालय साफ करने का। यह सोच कर उस बहन को बहुत दुख हुआ और वपिश जा कर सेवा को न करने के लिए माफी मांगी और शौचालय साफ करने की सेवा में लग गई। दोस्तो गुरु रामदास जी तो यहाँ तक कहते है कि अगर सतगुरु की सेवा करने के लिए हमे अपने शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े कर के भी अपने हाथ से अग्नि में जलने पड़े तो भी गुरु की सेवा के लिए तैयार रहना चाहिए। पर में क्या करता हु पहली बात तो सेवा ही नही करता। अगर कहि सेवा के लिए चल भी जाऊ तो जब तक कुछ लोगो को बता कर अपनी मां बड़े न कर लूं तब तक मिझे लगता ही नही में सेवा कर के आया हु ।सेवा करनी क्यो थी की मन नीचा हो पर सेवा पर गए कि मेरी चार लोग वहा वही करे। जब इस तरह होता ह तो इतना अहंकार आ जाता है कि सीधे जमीन पर चलना भी मुश्किल हो जाता है। सेवा पर गए थे कि मन मे नम्रता आये पर अहंकारी हो कर आ गये। साथ मे सोचने लगते है कि मेरे जैसा तो सेवादार कोई और है ही नही। गये थे कर्म कटवाने कर्म लिखवा कर आते है सेवा से । धन की सेवा धन की सेवा का अर्थ है कि अपनी हक हलाल की कमाई का एक हिसा अपने संत सतगुरु के सपुर्द करना अथवा किसी गरीब बेसहारा की धन रूप में सहायता करना धन की सेवा है। धन की सेवा से मन मे नम्रता आती है और मन मे भाव उतपन्न होता है कि यह जो कुछ भी है वह सब कुछ परमात्मा का है अगर मेरे पास कुछ भी है तो वह परमात्मा का है अगर मेरे से कुछ ले भी लिया तो वह भी परमात्मा का ही है। इसमे मुझे क्या कमी आयी। किन्तु हम तो ऐसी हालत में है सारा जीवन धन कमाने में गवा दिया जब सेवा करने की बात आई तो सोचा कि यह जो भी धन दौलत है वह तो मेरी है। मेने सारा जीवन इसे एकत्र करने में लगा दिया में क्यो किसी को बिना बात के इसे दु। अगर कहि भूले से भी सेवा के लिए धन दिया तो बड़े बड़े अक्षरों में अपना नाम लिखवा दिया। सेवा तो करनी थी कि दिल मे नम्रता आये और भगवान के निवास के लिए मन को निर्मल करे। पर हमने सेवा की और अहंकार को मोल घर ले आये। सन्त तो कहते है कि सेवा करो तो किसी को पता न लगे के हमने सेवा की है । पर हमने सेवा की और अपने नाम का डंका पूरी दुनिया मे बजवा दिया कि मैने सेवा की है । ऐसी सेवा हमारी कभी सफल नही होती ।
मन की सेवा
कहते है कि कोई भी सेवा तभी सफल मानी जाती है जब वह मन करके की जाये, अर्थत अपने आप को गुरु चरणों की धूल समझ कर किया जाये। एक बार की बात है एक विदेशी औरत थी। वह औरत बहुत धर्म कर्म वाली थी। उस औरत ने भारत मे किन्ही संत से नाम शब्द लिया । उस औरत ने नाम की बहुत कमाई की और अपनी कमाई का कुश हिस्सा सेवा के लिए रखती रही और सोच जब भारत जयेगी तो सेवा अपने गुरु चरणों मे अर्पित कर देगी। परन्तु आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि वह भारत न आ पाई। समय बिता पर वह भारत न आ पाई। धीरे धीरे वह औरत वृद्ध हो गई पर मन मे अभी भी इच्छा थी कि में अपनी कमाई में से जो भी बचाया है वह सेवा में दे कर आये। सेवा के लिए मन मे इतनी गहरी तमना थी कि उसके गुरु को स्वयं उस सेवा को लेने के लिए औरत के पास जाना पड़ा। मन से की गई सेवा ही दरगाह में परवान होती है । मन कर के सेवा वही कर सकते है जिन पर मालिक बख्शीश करे दया करे। किन्तु इस बात से यह नही समझना कि मन से सेवा तो मालिक ही करवाता है मन के बिना की सेवा का कोई फल नही तो हमारा सेवा करने का क्या फायदा। नही हमे इस तरह नही सोचना बल्कि मालिक से प्रार्थना करनी है कि हे मालिक हमारे अंदर इतनी नम्रता ला के हम मन से तेरी और तेरी सृष्टि के जीवों की सेवा कर सके। इतना प्यार पैदा कर की तेरी बनाई दुनिया के जीवों के प्रति नफरत खत्म हो। मन मे से अहंकार का नाश हो और सत्य का प्रकाश हो। प्रार्थना करना हमारा फ़र्ज है। बख्शीश करनी मालिक की दया।। सुरत की सेवा सुरत की सेवा सब प्रकार की सेवाओ में सबसे उत्तम सेवा है। यह सेवा गुरु कि कृपा द्वारा प्रप्त होती है। सुरत का शरीर के रोम-रोम से निकल कर गुरु चरणों के साथ लिव जोड़ कर अपने निज-धाम की तरफ जाना सुरत कि सेवा है। सुरत कि सेवा में जप, तप और सयम या धिरज शामिल है।सुरत की सेवा का सौभाग्य प्रभु इच्छा द्वारा प्राप्त होता हैं। हम अन्य अनेक प्रकार कि सेवा करते है किन्तु हम सुरत कि सेवा का भेद नही जनते। सुरत कि सेवा प्रप्त करने के लिए हमें सन्तों के पास जा कर सुरत कि सेवा के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। सुरत कि सेवा कि प्राप्ति के लिए सब से पहला और सरल सा कदम है सन्तों के पास जा कर तन द्वारा सन्तों कि आज्ञा अनुसार सेवा करना। जैसे जैसे सन्तों कि कृपा दृष्टि हम पर बनेगी। हमारी श्रद्धा और विश्वास बनेगा। मन से सेवा भी करने लगेंगे। जब मन की सेवा करते करते हमारा अंदर पवित्र होगा तो हमारा अपने असल अपने मूल की तरफ खिंचाव बढ़ता जायेगा और तब हम सन्तों के पास जाते है और सूरत की सेवा पाने के लिए सन्तों से प्रार्थना करते है और सेवा की प्राप्ति के लिए महनत करते है तब सन्तों की कृपा द्वारा हमे सुरत की सेवा प्राप्त होती है। कहते है कि तन और धन की सेवा करने वाले बहुत है। मन की सेवा करने वाले बहुत कम है। किन्तु सुरत की सेवा करने वाले विरले ही है। सुरत की सेवा गुरु का शिष्य की एकमात्र सच्चा प्रसाद है। यह प्रसाद प्राप्त उन्हें ही होता है जिन पर गुरु की बक्शीश हो। अधिकतर लोग संसार की सेवा में ही लगे हुए है। संसार की सेवा अच्छी है पर अन्य सब प्रकार की सेवा का फल भोगने के लिए हमे बार-बार जन्म मरण के चक्र में आना पड़ता है। किंतु सुरत कि सेवा ही एक ऐसी सेवा है जिससे हमारा जन्म मरण के दुखों से निपटारा होता है। सुरत कि सेवा से मालिक की बनाई सृष्टि से मोह टूटता है। सुरत की सेवा का ज्ञान सन्तों की संगत और सत्संग से ही प्राप्त होता है। सुरत की सेवा से मन कि चंचलता खत्म होती है और मन अपने असल की और चल पड़ता है। सुरत की सेवा से सतगुरु(जो परमात्मा का ही रूप है) से प्रेम भाव और बढ़ता है और दुनिया मे से ख्याल सिमटने लगता है अर्थत दुनिया का मोह खत्म होता जाता है। सुरत की सेवा में लगे लोग जो भी सांसारिक कार्य करते है वह अपने गुरु का हुक्म समझ कर ही करते है। उनके लिए गुरु का हुक्म और मालिक का बहाना ही सब कुछ है। |
मंगलवार, 8 अगस्त 2017
तन, मन, धन और सुरत की सेवा
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